Saturday, September 26, 2020

लौंगी भुइंया: बिहार के नए माउंटेनमैन ने क्या सच में खोदी थी तीन किलोमीटर लंबी नहर

 

लौंगी भुइंया: बिहार के नए माउंटेनमैन ने क्या सच में खोदी थी तीन किलोमीटर लंबी नहर

  • चिंकी सिन्हा
  • बीबीसी हिंदी के लिए
लौंगी भुइंया ने नहर खोदी या नहीं

जैसे ही आप एक संकरी सड़क की ओर मुड़ते हैं, तो सामने की ओर आपको पहाड़ियां दिखाई देती हैं. बिहार के इस इलाक़े में मीलों दूर तक, जहां तक निगाह जाती है, सिर्फ़ चट्टानें और पहाड़ियां ही दिखाई देती हैं.

ये मंज़र बड़ा निर्मम लगता है. इस इलाक़े में जगह-जगह पर आपको बोर्ड लगे दिखेंगे, जिन पर लिखा हुआ है, 'जानवर शेड योजना'.

बिहार के इस ग्रामीण इलाक़े में लोग इन शेड्स में बकरियां पालते हैं. यहां आपको ख़ालीपन का अपार विस्तार दिखता है. लेकिन, सिर्फ़ इस मंज़र को देखकर शायद आपको ये एहसास न हो सके कि ऐसे दूर दराज़ के इलाक़ों में रहना कितना मुश्किल भरा होता है.

इसका अंदाज़ा आपको तब होता है, जब आप यहां से कहीं जाने के लिए निकलें और बस पकड़ने के लिए भी मीलों पैदल चलना पड़े. और इसी निर्जन इलाक़े में एक कहानी की बड़ी चर्चा चल रही है.एक व्यक्ति का दावा है कि उसने अकेले ही तीन किलोमीटर लंबी नहर खोद डाली. और इस काम में उस शख़्स ने अपनी ज़िंदगी के तीस बरस ख़र्च कर डाले. जिस गांव का ये बाशिंदा है, उसका नाम है- कोठिलवा, जो बिहार के इस निर्जन, निर्मम और अपार विस्तार वाले इलाक़े में आबाद है.

लौंगी भुइयां ने नहर खोदी या नहीं

लौंगी भुइंया का गांव

सूरज डूब रहा है और उसकी सुनहरी किरणों ने मानो, इस इलाक़े में रहने वाले ग़रीबों की झोपड़ियों पर चटख़ नारंगी चादर फैला रखी है. आप यहां के बच्चों को देखिए, तो उनके बालों का रंग सुनहरा हो चला है. वो कुपोषण के शिकार हैं.

ये वो इलाक़ा है, जहां कभी बिहार में माओवादी उग्रवादियों का राज चलता था. ये उनकी पनाहगाह थी. संकरी सड़क से गुज़रते हुए कुछ और किलोमीटर आगे बढ़ें, तो आपको सामने एक कार नज़र आती है.

हम जिस शख़्स की बात कर रहे हैं, उनका नाम है लौंगी भुइंया. उन्हें अकेले तीन किलोमीटर लंबी नहर खोद डालने की जो शोहरत मिली है, उसकी शहादत उनके गांव कोठिलवा के दूसरे लोग भी देते हैं.

तीन सितंबर को एक स्थानीय पत्रकार ने हिंदी अख़बार हिंदुस्तान में लौंगी भुइंया की कहानी पहली बार छापी थी. तब से वो कोठिलवा गांव आकर्षण का केंद्र बन गया है. ये वही गांव हैं, जहां आज से कुछ बरस पहले तक एक प्राइमरी स्कूल भी नहीं था.

ये संकरी सड़क आगे चल कर कच्ची पगडंडी में तब्दील हो जाती है. और इसी के साथ कार की रफ़्तार भी मंद पड़ जाती है. कच्ची सड़क पर गड्ढे ही गड्ढे हैं. और गांव की गायें और भैंसें, जिन्हें कारों की आमद-ओ-रफ़्त की आदत नहीं है, वो इनके शोर से घबराकर इधर-उधर भागने लगती हैं. नतीजा ये कि इस निर्जन इलाक़े में भी ट्रैफिक जाम जैसे हालात बन जाते हैं.

लौंगी भुइयां ने नहर खोदी या नहीं

गांव वालों की उम्मीद

हमारी कार रुकते ही एक युवक आकर हमें बताता है, 'कोठिलवा गांव इसी सड़क पर और आगे है.'

हमने उससे कोठिलवा का रास्ता पूछा नहीं था. लेकिन, उसे पता था कि इस धूल भरे रास्ते पर अचानक दिख रहे लोगों का रुख़ किस ओर है. 2011 की जनगणना के अनुसार, कोठिलवा गांव, बिहार के गया ज़िले की बांके बाज़ार तहसील में स्थित है.

ये गांव, ज़िला मुख्यालय गया से लगभग 80 किलोमीटर दूर है. ये पूरा गांव महज़ 445 हेक्टेयर में बसा हुआ है. कोठिलवा की कुल आबादी महज़ 733 है. सरकारी आंकड़े कहते हैं कि कोठिलवा गांव में कुल जमा 110 घर हैं. यहां से जो सबसे क़रीबी क़स्बा है, शेरघाटी वो भी 23 किलमीटर दूर है.

कुछ और दूर चलने के बाद कार रुक जाती है. और उससे चार लोग उतरते हैं. वो गांव की एक गली की ओर मुड़ जाते हैं, जहां गांव के लोग घूमते दिख जाते हैं.

ये 19 सितंबर की बात है. उसी दोपहर को लौंगी भुइयां की कच्ची झोपड़ी के सामने एक चबूतरा बनाया गया था. जहां पर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को आना था.

मांझी जो पहले राज्य की सत्ताधारी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) में हुआ करते थे. उन्होंने बाद में अपना अलग हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (HAM) बना लिया था. मांझी ने लौंगी भुइंया को राष्ट्रपति से सम्मानित कराने का वादा किया है.

वहीं, गांव के लोगों ने जीतनराम मांझी से गांव के लिए एक पक्की सड़क और एक अस्पताल बनवाने की मांग की है. गांववालों को मालूम है कि अभी मौक़ा अच्छा है. बिहार में चुनाव का मौसम है.

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गांव में ज़्यादातर दलित आबादी

कोठिलवा गांव के ज़्यादातर बाशिंदे दलित हैं. वो चर्चा में भी हैं. अब हर कोई कोठिलवा की अच्छाइयों का बखान करना चाहता है.

लेकिन, लौंगी भुइंया की इस चर्चित कहानी के पीछे बहुत स्याह और तल्ख़ हक़ीक़त छुपी हुई है. इतने बरसों में किसी ने इस गांव की सुध नहीं ली. इस गांव में न पीने के पानी की व्यवस्था है, न सड़क है. और सबसे बड़ी बात ये कि इससे किसी को इससे फ़र्क़ भी नहीं पड़ा.

स्थानीय पत्रकार जयप्रकाश बताते हैं कि अब से कुछ बरस पहले जब लुतुआ ब्लॉक में एक पुलिस थाना बना और सीआरपीएफ़ का कैम्प स्थापित हुआ, तब जाकर इलाक़े का कुछ विकास हुआ. ये जयप्रकाश ही थे, जिन्होंने तीन सितंबर को लौंगी भुइंया की कहानी हिंदुस्तान में लिखी थी, जिससे इस छोटे से गांव और ग़रीब किसान लौंगी भुइंया का नाम पूरे हिंदुस्तान में मशहूर हो गया.

असल में जयप्रकाश, इस गांव में एक सितंबर को आए थे. तब यहां पर गांव के ही लोग मिल-जुलकर, श्रमदान करके सड़क बना रहे थे. इसी दौरान जयप्रकाश की मुलाक़ात लौंगी से हुई, जिन्होंने जयप्रकाश से सहा कि वो जंगल की ओर चलें और उनकी बनाई नहर देखें.

जयप्रकाश बताते हैं, "जब तक मैंने अपनी आंखों से वो नहर नहीं देखी, मुझे तो लौंगी की कहानी पर यक़ीन ही नहीं हो रहा था. लौंगी ने सिंचाई के लिए एक पतली सी नहर खोद डाली थी. मुझे लगा कि वो झूठ बोल रहे हैं, तो हम मोटरसाइकिल पर सवार होकर उनकी नहर देखने गए. तब मैंने देखा कि लौंगी ने क्या कमाल कर डाला था. मॉनसून के दिनों में पास के ही छोटे से बांध में पानी जमा हो गया था. इस बांध को जल विभाग ने पिछले साल ही बनाया था. अब गांव के लोगों ने इसका नाम लौंगी बांध रख दिया है. इसी बांध से निकलती हुई नहर लौंगी ने खोदी है, जिसे गांव के लोग आहर कहते हैं."

कोठिलवा गांव में लौंगी के पास दो बीघा ज़मीन है.

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तोहफ़ों और मुलाक़ातों की सिलसिला

19 सितंबर को गया शहर में महिंद्रा के एक शो रूम के बाहर एक सजा-धजा ट्रैक्टर खड़ा था. किसी ने लौंगी को तोहफ़े में नए कपड़े दे दिए थे. और वो गुलाब का एक गुलदस्ता लेकर खड़े थे और पोस्टर के लिए फोटो खिंचवाई थी.

इस दौरान लौंगी का एक बेटा और पास के ही गांव के शिक्षक रिंकू कुमार भी साथ ही थे. रिंकू कुमार, कोठिलवा गांव के प्राइमरी स्कूल में ही पढ़ाते हैं.

रिंकू कुमार ने हमें बताया, "हम तो यहीं रहते थे. हमें पता था कि वो खुदाई कर रहे हैं. गांव के सब लोगों को लौंगी के बारे में ये बात पता थी. लेकिन, किसी ने ये नहीं सोचा था कि लौंगी जो खुदाई कर रहा है, वो एक दिन नहर बन जाएगी."

दमयंती देवी ने कानों में जो चमकदार बालियां पहन रखी थीं, वो उन्होंने पास की बांके बाज़ार तहसील से ख़रीदी थीं. इसके लिए वो पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर गई थीं, और पूरे चालीस रुपए ख़र्च करके ये बालियां ख़रीदी थीं.

दमयंती को बालियों की ज़रूरत इसलिए महसूस हुई कि दूर पहाडियों के बीच लुतुआ ब्लॉक में बसे उसके गांव में अचानक लोगों का काफ़ी आना जाना होने लगा था. बहुत से लोग लौंगी से मिलने आने लगे थे. दमयंती, लौंगी के भाई की बहू हैं.

जब हम गांव पहुंचे तो लौंगी वहां नहीं थे. उन्हें गया ले जाया गया था, जो कोठिलवा गांव से 90 किलोमीटर दूर है. गया में लौंगी को महिंद्रा ग्रुप की ओर से एक ट्रैक्टर दिया जा रहा था. महिंद्रा एंड महिंद्रा ग्रुप के प्रमुख आनंद महिंद्रा ने ट्विटर पर तब लौंगी भुइंया के बारे में जाना, जब एक स्थानीय रिपोर्टर ने ट्वीट किया कि लौंगी का ख़्वाब है कि उसके पास अपना ट्रैक्टर हो.

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ज़िंदगी बदलने की उम्मीद

इसके बाद महिंद्रा ग्रुप ने लौंगी को एक ट्रैक्टर गिफ्ट करने का फ़ैसला किया. अब कोठिलवा गांव सरकार के नक़्शे में भी नज़र आने लगा है. लौंगी के परिजनों को अंदाज़ा हो चुका है कि अब उनकी ज़िंदगी बदलने वाली है.

लेकिन, लौंगी की पत्नी रामरती देवी की दिनचर्या अब भी वही है. वो अपनी बकरियों को चराकर लौटीं और घर में सुस्ता रही थीं.

रामरती ने बताया, "वो कुछ अच्छा काम कर रहे थे. लेकिन हमें लगता था कि वो पागल हैं. और कई बार तो हमने उनको खाना भी नहीं दिया."

कमरे में रामरती के साथ बैठे लौंगी के एक और बेटे ब्रह्मदेव ने कहा कि उनका बचपन बहुत मुश्किलों में बीता. घर में पैसे नहीं होते थे. वो जंगल से लकड़ियां बटोर कर उसे बांके बाज़ार बेचने जाया करते थे.

इसके अलावा वो बकरियां पालते थे और किसी तरह परिवार की गुज़र बसर होती थी.

ब्रह्मदेव कहते हैं, "हमारे पिता जी तो कभी घर में होते ही नहीं थे. हमने तो उनसे कोई उम्मीद करनी छोड़ दी थी. हमारी अम्मा उन्हें ताने देती थीं कि वो बच्चों का ख्याल नहीं रखते."

पूरे परिवार को इस बात का यक़ीन हो गया था कि लौंगी पर किसी भूत प्रेत या बुरी आत्मा का साया है. वो कई बार लौंगी को झाड़-फूंक के लिए ओझाओं के पास भी ले गए. लेकिन, लौंगी ने खुदाई का काम बंद नहीं किया.

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गांव वाले कहते थे पागल

लौंगी की कच्ची झोपड़ी के बाहर एक लाख रुपये के चेक की एक बड़ी-सी तस्वीर लटक रही है. ये चेक लौंगी को मैनकाइंड फार्मा कंपनी की ओर से दिया गया था.

रविवार को एक और अच्छी ख़बर आई. जब राज्य के मुख्यमंत्री ने अपने जल मंत्री संजय झा को निर्देश दिया कि वो लौंगी द्वारा खोदी गई नहर को पूरा कराएं.

बिहार में चुनाव हैं, तो लौंगी को कुछ ज़्यादा ही तवज्जो मिल रही है. जबकि, इससे पहले बरसों बरस लौंगी अकेले ही बंगेठा के जंगल में ये नहर खोदते रहे थे.

तब किसी ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया. गांव के लोग उन्हें पहले ही पागल कहकर ख़ारिज कर चुके थे. और अब वही गांववाले याद करते हुए बताते हैं कि लौंगी को वो अक्सर वक़्त बे-वक़्त फाड़ा लिए हुए जंगल की ओर जाते देखा करते थे, और पूछने पर लौंगी का कहना यही होता था कि वो पहाड़ियों से गांव तक पानी ले आएगा, जिससे कि गांववाले बिना पानी के उगने वाली फ़सलों, मक्का और चना के बजाय गेहूं और सब्ज़ियों की खेती कर सकेंगे, जिन्हें सिंचाई की दरकार होती है.

अपने ज़माने में लौंगी ने देखा था कि किस तरह गांव के रहने वाले एक एक करके गांव छोड़कर कमाने के लिए बाहर चले गए थे. ख़ुद लौंगी के तीन लड़के रोज़गार की तलाश में अलग-अलग शहरों में काम कर रहे थे. लौंगी की ख़्वाहिश थी कि उसके बच्चे गांव में ही रहें.

लौंगी का कहना था, "मैंने देखा था कि बारिश के दिनों में पहाड़ियों से नीचे आकर पानी बह कर कहीं और चला जाता था. अगर मैं नहर बनाकर पानी का रुख़ मोड़ लूं तो ये गांव की ओर आ सकता है. इससे मैं गांव के लोगों को शहर का रुख़ करने से रोक सकूंगा."

लौंगी ने नहर की खुदाई का काम तीन दशक पहले शुरू किया था. गांव के ही सामाजिक कार्यकर्ता पासवान का कहना था कि बरसों पहले जब वो स्कूल में थे, तब भी लौंगी नहर के बारे में बात करते थे.

पासवान का कहना है, "हो सकता है कि लौंगी ने तभी से नहर खोदनी शुरू कर दी हो. पर, ये शायद तीस बरस पुरानी बात न हो. मेरे हिसाब से तो ये बीस साल पुरानी बात है."

इस पहाड़ी इलाक़े के छोटे से गांव में गुम लौंगी को अब दुनिया ने खोज लिया है. और अब हर कोई लौंगी की कहानी कहने में अपनी भूमिका अपने हिसाब से तय कर रहा है.

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पीपली लाइव याद ताज़ा हुई

प्रेस को हर वक़्त एक सनसनीख़ेज़ ख़बर या घटना की तलाश रहती है. लेकिन, मीडिया की सनसनीख़ेज़ पत्रकारिता को शह जनता से ही मिलती है.

लौंगी भुइंया के पीछे पड़े मीडिया को देख कर 2010 में निर्देशक अनुषा रिज़वी की पहली फिल्म पीपली लाइव याद आती है. जिसमें एक रिपोर्टर एक बुज़ुर्ग महिला से बात करने के बाद कहता है, "ये देखिए ये मदर इंडिया हैं…जिनका कलेजा फट रहा है."

फ़िल्म पीपली लाइव की कहानी एक दिवालिया हो चुके किसान नत्था के इर्द-गिर्द घूमती है. फ़िल्म में नत्था का किरदार ओंकार दास मानिकपुरी ने निभाया था.

फ़िल्म में नत्था ख़ुद को मारने का फ़ैसला करता है. जिससे उसके परिवार को सरकार की उस योजना का लाभ मिल सके, जिसके तहत ख़ुदकुशी करने वाले किसानों की मदद की जाती है. नत्था ख़ुदकुशी करेगा या नहीं, यही ख़बर पूरे मीडिया में छा जाती है.

यहां, वैसे किसी उद्धार की गुंजाइश नहीं दिखती. लौंगी की कहानी उस वक़्त हिंदुस्तान में सुर्ख़ियां बटोर रही है, जब देश के कई हिस्सों में किसान, कृषि सुधार के लिए बनाए गए नए क़ानून का विरोध कर रहे हैं. इन नए क़ानूनों से कृषि क्षेत्र में व्यापक बदलावों का दावा किया जा रहा है.

सरकार की ओर से तर्क दिया जा रहा है कि इन नए क़ानूनों से कृषि क्षेत्र में उदारीकरण का रास्ता सुगम होगा. आज देश में किसानों की ख़ुदकुशी के मामले बढ़ रहे हैं. अब ऐसे में लौंगी ने नई नहर खोदी या किसी पुरानी नहर को ज़िंदा किया, इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.

लौंगी भुइंया ने नहर खोदी या नहीं

सच तो बस उन गांववालों की गवाही है, जिनका कहना है कि उनके गांव में बरसों से पानी नहीं था. और उन सभी की बातों को 'रटा रटाया बयान' कहकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता.

इससे वो हक़ीक़त भी नहीं छुपती कि लौंगी ने अपनी पूरी ज़िंदगी भयंकर ग़रीबी में काटी. उसकी ज़िंदगी के ज़्यादातर दिन उबला हुआ मक्का खाकर बीते, क्योंकि, बिहार के इस इलाक़े में केवल मक्का ही उगता है.

लौंगी का ख़्वाब था कि वो गांव से शहर भागने वालों को रोक ले. वो अपने बेटों को अपने पास रखना चाहते थे. लेकिन, अगर आपकी नियति में अलविदा कहकर जाना ही लिखा है, तो कोई क़िस्मत को तो बदल नहीं सकता.

पत्रकारों का कहना है कि लौंगी अपने गांव में पानी लाना चाहते थे, ताकि गांव के लोग बाहर न जाएं. पानी आने पर लोग गेहूं की खेती कर सकते थे. वो दूसरे लोगों की ख़ुशी के लिए काम कर रहा थे.

लेकिन, क्या हो अगर हम ये कहें कि लौंगी ने असल में बेदिल हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगुल फूंक रखा था. और यही वजह थी कि वो आज बाक़ी लोगों से अलग खड़े नज़र आते हैं.

फिल्म पीपली लाइव में किसान की ख़ुदकुशी पूरे तमाशे का महज़ एक हिस्सा था. लेकिन, इसका निष्कर्ष गांवों से शहरों की ओर हो रहा पलायन था. और अब जबकि लॉकडाउन के चलते शहरों के कामकाजी गांव लौट रहे हैं. तो सवाल ये खड़ा होता है कि क्या ये अप्रवासी कामगार गांव का हिस्सा हैं या फिर शहर का? लौंगी की कहानी की असली थीम ये पलायन ही है.

फिल्म पीपली लाइव टीवी चैनलों के बीच रेटिंग की होड़ की कहानी है. जिसकी तलाश में पत्रकार, तमाशा दिखाने वाले बन जाते हैं.

लौंगी की कहानी में भी ऐसा होने की पर्याप्त संभावनाएं थीं. लेकिन, इस वक़्त देश के न्यूज़ चैनल इस बात को लेकर फ़िक्रमंद हैं कि ड्रग सिंडिकेट में कौन सी अभिनेत्री शामिल है.

और एक कड़वी सच्चाई ये भी है कि एक इंसान द्वारा नहर खोदने में तीस साल लगाने की दुखद कहानी के पीछे सरकार की निर्ममता भी छुपी हुई है. इन दिनों हमने सवाल पूछने बंद कर दिए हैं. वहीं, दूसरी तरफ़ सवाल लौंगी के दावे को लेकर भी उठे हैं. लेकिन, लौंगी अपनी बात पर अडिग है. वो कहते हैं, "मैंने नहर को खोदा है."

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नहर पहले थी या नहीं की बहस बेमानी

भले ही लौंगी की कहानी एक ऐसे इंसान की कहानी हो, जिसने असंभव को संभव कर डालने का ख़्वाब देखा. लेकिन, ये सरकार की उपेक्षा की भी दास्तान है.

और उस मीडिया के बारे में भी बहुत कुछ बताता है, जिसने एक इंसान के इस स्याह क़िस्से को चमत्कार में तब्दील कर दिया.

वो इंसान जिसने ख़ुद ही नहर खोदने का फ़ैसला किया. क्योंकि उसे पता था कि कोई और उसकी मदद के लिए आगे नहीं आएगा. लौंगी की कहानी लिखने वाले बहुत कम ही पत्रकार होंगे, जो कोठिलवा गांव तक गए.

जबकि असली कहानी तो वास्तविकता के धरातल पर ही होती है. और कई बार ये कहानी बदल भी जाती है. एक स्थानीय पत्रकार जो कि एक बड़े राष्ट्रीय अख़बार में स्ट्रिंगर है, ने सोशल मीडिया पर लिखा कि लौंगी की पूरी कहानी फ़र्ज़ी है.

इस पत्रकार ने 1914 की एक योजना का हवाला देकर कहा कि कोठिलवा में तो पहले से ही एक नहर थी. लेकिन, इस देश में और बिहार जैसे तमाम राज्यों में बहुत सी ऐसी योजनाएं हैं, जो सिर्फ़ काग़ज़ पर मौजूद हैं.

ये योजनाएं बनती तो हमेशा हैं, लेकिन कभी ग़रीब की मदद के लिए उसके दरवाज़े तक नहीं पहुंचतीं. यही बात उस शाम दमयंती देवी भी कह रही थीं. इंदिरा आवास योजना के तहत, घर बनाने के लिए सरकार से मिलने वाला पैसा पाने के लिए उन्हें अधिकारियों को दस हज़ार रुपये कमीशन देना पड़ा था.

काग़ज़ पर तो हमारा मुल्क एक लोकतंत्र भी है. एक कल्याणकारी राज्य भी है. लेकिन, ज़मीनी स्तर पर एक गांव ऐसा भी है, जहां आज़ादी के इतने बरस बाद भी पानी की सुविधा नहीं है.

ऐसे देश में, ये बहस ही बेमानी है कि नहर पहले थी या नहीं थी.

लौंगी भुइंया ने नहर खोदी या नहीं

लौंगी जैसे लोगों की कहानी में दांव पर बहुत कुछ लगा हुआ है. जब ख़बरों का टोटा हो, तो आप ऐसे क़िस्सों को कई दिन तक चला सकते हैं. लेकिन, जो लोग लौंगी के दावे पर सवाल उठा रहे हैं, उन्होंने भी 1914 की योजना के सबूत नहीं पेश किए.

गया ज़िले के ज़िलाधिकारी अभिषेक सिंह ने इन दावों की हक़ीक़त का पता लगाने के लिए किए गए हमारे सवालों के जवाब नहीं दिए. डीएम अभिषेक ने इन दावों को पूरी तरह से ख़ारिज भी नहीं किया.

वहीं, प्रखंड विकास अधिकारी ने इस सवाल का जो जवाब दिया वो आधा-अधूरा है. इससे तस्वीर साफ़ होने के बजाय और धुंधली हो गई. लुतुआ ब्लॉक के बीडीओ सोनू कुमार ने कहा, "आप ख़ुद यहां आकर तकनीकी समीक्षा कर लीजिए."

लेकिन, अब्दुल क़ादिर सरकार पर लगातार हमले कर रहे हैं. क़ादिर ने 21 सितंबर को अपने फ़ेसबुक पेज पर लिखा, "क्या सरकार ने अब झूठ बोलने का काम भी उस मीडिया के हवाले कर दिया है, जिसकी आत्मा मर चुकी है. जो रीढ़विहीन हो चुका है. आख़िर क्या वजह है कि इस नहर के दावे को लेकर सरकार अपनी स्थिति साफ़ नहीं करती. या ये नहर भी जुमले की शक्ल में ही मौजूद है. या तो सरकार ये कहे कि पहले नहर मौजूद थी. या तो ऐसे दावों को पूरी तरह से ख़ारिज करे."

अब्दुल क़ादिर और उनके जैसे कई लोगों ने महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए हैं. लेकिन, इनके जवाब देना लौंगी भुइयां की ज़िम्मेदारी नहीं है.

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रातों-रात स्टार बनीं ज्योति पासवान

अभी ज़्यादा दिन नहीं बीते, जब स्थानीय मीडिया ने दरभंगा की एक लड़की ज्योति पासवान की कहानी छापी थी. ज्योति के बारे में कहा गया था कि वो गुरुग्राम से दरभंगा के अपने गांव सिरहौली तक 1200 किलोमीटर साइकिल चलाकर पहुंची थी.

और वो साइकिल में अपने ज़ख़्मी पिता को बैठा कर गांव ले आई थीं. ज्योति पासवान रातों-रात स्टार बन गई थीं. मीडिया में उसकी कहानी काफ़ी दिनों तक छाई रही थी.

मीडिया ने ज्योति को साइकिल गर्ल का नाम दिया था. ज्योति की कहानी सबसे पहले पत्रकार अलिंद्र ठाकुर ने दुनिया को बताई थी, जिन्होंने मई महीने में ज्योति की ख़बर छापी थी. तब ज्योति अपने पिता के साथ स्थानीय क्वारंटीन सेंटर पहुंची थी. अलिंद्र ठाकुर को अब लगता है कि ज्योति की कहानी में कई झोल हैं.

लेकिन, अब उनका ये कहना है कि मामला बहुत आगे निकल गया है, इसलिए चुप रहना ही वो बेहतर समझते हैं. वहीं, पिछले तीन महीनों मे ज्योति के परिवार ने अपने एक कमरे के छोटे से घर की जगह तीन मंज़िला मकान बना लिया है.

आज उनके मकान में सीढ़ियों के नीचे आठ से ज़्यादा साइकिलें खड़ी हैं. ये वही जगह है जहां कभी ज्योति के घर की रसोई हुआ करती थी. जब से ज्योति अपने गांव पहुंची, तब से ही वो सेलेब्रिटी बन चुकी हैं.

हालांकि, अब उनके परिवार को शोहरत का वो दौर याद आता है. ज्योति के पिता मोहन पासवान का कहना है कि उन्हें सरकारी नौकरी चाहिए. ज्योति का कहना था कि वो पढ़ना चाहती थीं, ताकि अपनी ज़िंदगी में कुछ कर सकें.

ज्योति और उनके पिता ने अपने साइकिल के लंबे सफर पर बनने वाली दो फिल्में भी साइन की थीं. लेकिन, आज वो दोनों फिल्मकार इस बात पर झगड़ रहे हैं कि आख़िर ज्योति की ज़िंदगी पर बनने वाली फ़िल्म के क़रार पर दस्तख़्त किसने पहले कराए.

जब हम ज्योति से उसके गांव में मिले तो, उसका कहना था, "जब हमारे घर पर लोगों के आने का तांता लगा हुआ था, तो मुझे बहुत अच्छा लगता था."

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चमत्कार का इंतज़ार

ज्योति के घर के पास ही शहरों से लौटे, दर्जनों अप्रवासी कामगार अपने दिन एक मंदिर परिसर में बिताते हैं. उन्हें किसी चमत्कार का इंतज़ार है. और चमत्कार से उनकी मुराद ये है कि सरकार ने उनसे जो वादे किए थे, बस वो वादे पूरे कर दे.

जिन शहरों में वो काम कर रहे थे, वो नौकरियां अब हाथ से निकल गई हैं. और गांव में कोई काम है नहीं. लॉकडाउन ने उन्हें हताश-निराश कर दिया है.

और इस निराशा के दौर में सच कहीं गुम हो गया है. बल्कि, सच तो ये है कि सच की कोई अहमियत ही नहीं. क्योंकि, ऐसे लोगों की ज़िंदगी में कुछ नहीं बदलता.

सिवा उनके जो अचानक हीरो बना दिए जाते हैं. लौंगी और ज्योति, दोनों की कहानी में एक कड़वी सच्चाई सरकार की क्षमताओं की नाकामी और उसकी बेरुख़ी की भी है.

एक और कहानी ग़रीबों के संघर्ष की भी है. अब लौंगी भुइयां ने नहर खोदी या नहीं. ज्योति गुरुग्राम से दरभंगा साइकिल चलाकर पहुंची या नहीं. ये बातें मायने रखती ही नहीं.

इस देश में शोषण में भी भेदभाव होता है. हो सकता है कि ये देश के ग़रीबों द्वारा मीडिया में अपना हक़ हासिल करने का मौक़ा हो. जिससे मीडिया देश के ग़रीबों के प्रति सरकार के रवैये के बारे में भी चर्चा करने को मजबूर होता है. और ये पहली बार नहीं है, जब भयंकर ग़ुरबत वाले इलाक़ों से ऐसे क़िस्से सामने आए हैं.

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दशरथ मांझी की वो कहानी

बरसों पहले हमने दशरथ मांझी की भी कहानी सुनी थी, जो गया ज़िले के ही रहने वाले थे. दशरथ मांझी को मीडिया ने बाद में 'माउंटेन मैन' का दर्जा दिया था.

दशरथ मांझी एक भूमिहीन मज़दूर थे. वो लौंगी भुइयां की तरह ही निचली जाति से आते थे. दशरथ ने 1960 में गया के गेहलौर की पहाड़ियों को काटना शुरू किया था. और पूरे 22 बरस तक पहाड़ पर हथौड़ा चटकाते हुए दशरथ ने पहाड़ काट कर 360 फुट लंबा, 25 फुट गहरा और 30 फुट चौड़ा एक रास्ता बनाया था.

गेहलौर के मुसहर समुदाय के लोगों को बुनियादी ज़रूरतों के लिए भी पहाड़ का चक्कर लगाकर क़रीब 75 किलोमीटर का सफ़र तय करना पड़ता था.

और दशरथ मांझी, जो पहाड़ी के उस पार एक जम़ींदार के खेत में काम करते थे, उन्हें भी रोज़ इस पहाड़ को चढ़ कर काम के लिए जाना होता था. एक दिन दशरथ की पत्नी इस पहाड़ी से गिर पड़ी और घायल हो गई.

तब दशरथ मांझी ने अपनी बकरियों को बेचकर एक हथौड़ा और छीनी ख़रीदे. इसके बाद वो रोज़ाना सुबह से शाम तक पहाड़ को काटने का काम करते रहे. पहाड़ काटकर दशरथ मांझी की बनाई इस सड़क से आस-पास के 60 गांवों के लोगों को फ़ायदा हुआ था.

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लौंगी भुइयां 'दूसरे दशरथ मांझी'

इससे उनका रास्ता पांच किलोमीटर छोटा हो गया था. दशरथ मांझी की वर्ष 2016 में मौत हो गई थी. अब तीस साल में तीन किलोमीटर लंबी नहर खोदने वाले लौंगी भुइयां को 'दूसरा दशरथ मांझी' कहा जा रहा है.

उनकी कामयाबी के गीत गाए जा रहे हैं. यही नहीं अब लौंगी भुइयां को बिहार सरकार की जल जीवन हरियाली योजना का ब्रांड एम्बेसडर भी बना दिया गया है. इस योजना से पर्यावरण को सुधारने और जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जाता है.

दशरथ मांझी की मौत के वक़्त दशरथ मांझी द्वारा बनाई गई सड़क को ताज महल जैसा दर्जा दिए जाने की मांग हो रही थी. क्योंकि, ये सड़क भी दशरथ मांझी की मुहब्बत के प्रति जुनून का ही नतीजा थी. अब आनंद महिंद्रा ने सोशल मीडिया पर यही बात लौंगी भुइयां के बारे में कही है.

आनंद महिंद्रा ने लिखा कि लौंगी भुइयां की खोदी नहर ताज महल से कम नहीं है. लेकिन, लौंगी भुइयां ने ताजमहल नहीं देखा. उन्हें ये भी पता नहीं कि ताज महल एक बादशाह की मुहब्बत की निशानी है.

अगर लौंगी की खोदी हुई नहर कुछ है, तो इंसान की मेहनत और ज़िद की एक मिसाल है. ये हुकूमत के ख़िलाफ़ संघर्ष का भी प्रतीक है.

कुल मिलाकर, लौंगी का ये मामूली सा गांव आज पत्रकारों, नेताओं, स्वयंसेवी संगठनों और अन्य लोगों की नई मंज़िल है. वो आते हैं, वो लौंगी की उपलब्धि देखते हैं. सवाल पूछते हैं. वादे करते हैं और चले जाते हैं. इस गांव के लोगों ने इस दौर को पहले भी देखा है. आख़िर वो यहां बरसों से जो रहते आए हैं.

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