'एमएसपी पर कोई ख़तरा नहीं'
नरेंद्र मोदी की सरकार लगातार ये कह रही है कि 'नए कृषि बिल न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को समाप्त करने के लिए नहीं हैं.'
सरकारी विज्ञापनों के ज़रिए और कई केंद्रीय मंत्रियों के साथ-साथ पीएम नरेंद्र मोदी ने भी यह आश्वासन दिया गया है कि 'किसान बिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य से कोई लेना-देना नहीं है. एमएसपी दिया जा रहा है और भविष्य में दिया जाता रहेगा.' इस बीच सरकार ने (तय वक़्त से पहले ही) रबी की छह फ़सलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने की घोषणा भी की.
लेकिन कृषक समुदाय की यह आपत्ति है कि 'उन्हें लिखित में कहीं भी एमएसपी की गारंटी नहीं दी गई, ऐसे में सरकार का विश्वास कैसे किया जाए.'
किसानों को यह डर है कि 'सरकार कृषि क्षेत्र में भी ज़ोर-शोर से निजीकरण ला रही है, जिसकी वजह से फ़सल बेचने के रहे-सहे सरकारी ठिकाने भी ख़त्म हो जाएँगे. इससे जमाख़ोरी बढ़ेगी और फ़सल ख़रीद की ऐसी शर्तों को जगह मिलेगी जो किसान के हित में नहीं होंगी.'
अपनी इन्हीं चिंताओं को लेकर भारत के किसान शुक्रवार को जगह-जगह विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. पंजाब और हरियाणा के किसानों के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसानों ने 'कृषि बिलों के ख़िलाफ़ लंबी लड़ाई लड़ने की घोषणा' की है.
क्या किसानों को भटकाया गया?
सत्तारूढ़ दल बीजेपी का नज़रिया है कि 'किसान राजनीति का शिकार हो रहे हैं, उन्हें कुछ राजनीतिक पार्टियाँ अपने निजी हितों के लिए भ्रमित कर रही हैं, उन्हें एमएसपी के नाम पर भटकाया जा रहा है.'
तो क्या वाक़ई किसान भटक गए हैं? या जिस शक्ल में इन कृषि बिलों को लाया गया है, उससे वाक़ई किसानों के हितों को ख़तरा है? इस बारे में बीबीसी ने वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ से चर्चा की.
साईनाथ इन बिलों को किसानों के लिए 'बहुत ही बुरा' बताते हैं. वे कहते हैं, "इनमें एक बिल एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) से संबंधित है जो एपीएमसी को विलेन की तरह दिखाता है और एक ऐसी तस्वीर रचता है कि 'एपीएमसी (आढ़तियों) ने किसानों को ग़ुलाम बना रखा है.' लेकिन सारा ज़ोर इसी बात पर देना, बहुत नासमझी की बात है क्योंकि आज भी कृषि उपज की बिक्री का एक बड़ा हिस्सा विनियमित विपणन केंद्रों और अधिसूचित थोक बाज़ारों के बाहर होता है."
"इस देश में, किसान अपने खेत में ही अपनी उपज बेचता है. एक बिचौलिया या साहूकार उसके खेत में जाता है और उसकी उपज ले लेता है. कुल किसानों का सिर्फ़ 6 से 8% ही इन अधिसूचित थोक बाज़ारों में जाता है. इसलिए किसानों की असल समस्या फ़सलों का मूल्य है. उन्हें सही और तय दाम मिले, तो उनकी परेशानियाँ कम हों."
साईनाथ कहते हैं, "किसानों को अपनी फ़सल के लिए भारी मोलभाव करना पड़ता है. क़ीमतें बहुत ऊपर-नीचे होती रहती हैं. लेकिन क्या इनमें से कोई भी बिल है जो फ़सल का रेट तय करने की बात करता हो? किसान इसी की माँग कर रहे हैं, वो अपने मुद्दे से बिल्कुल भटके नहीं हैं."
'कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग' - फ़ायदा या नुक़सान
साईनाथ कहते हैं कि एक अन्य कृषि बिल के ज़रिए मोदी सरकार 'कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग' यानी अनुबंध आधारित खेती को वैध कर रही है.
वे बताते हैं, "मज़ेदार बात तो ये है कि इस बिल के मुताबिक़, खेती से संबंधित अनुबंध लिखित हो, ऐसा ज़रूरी नहीं. कहा गया है कि 'अगर वे चाहें तो लिखित अनुबंध कर सकते हैं.' ये क्या बात हुई? ये व्यवस्था तो आज भी है. किसान और बिचौलिये एक दूसरे की बात पर भरोसा करते हैं और ज़ुबानी ही काम होता है. लेकिन किसान की चिंता ये नहीं है. वो डरे हुए हैं कि अगर किसी बड़े कॉरपोरेट ने इक़रारनामे (कॉन्ट्रैक्ट) का उल्लंघन किया तो क्या होगा? क्योंकि किसान अदालत में जा नहीं सकता. अगर वो अदालत में चला भी जाए तो वहाँ किसान के लिए उस कॉरपोरेट के ख़िलाफ़ वकील खड़ा करने के पैसे कौन देगा? वैसे भी अगर किसान के पास सौदेबाज़ी की शक्ति नहीं है तो किसी अनुबंध का क्या मतलब है?"
किसान संगठनों ने भी यही चिंता ज़ाहिर की है कि 'एक किसान किसी बड़े कॉरपोरेट से क़ानूनी लड़ाई लड़ने की हैसियत नहीं रखता.'
जबकि सरकार का दावा है कि कॉन्ट्रैक्ट के नाम पर बड़ी कंपनियाँ किसानों का शोषण नहीं कर पाएँगी, बल्कि समझौते से किसानों को पहले से तय दाम मिलेगा. साथ ही किसान को उसके हितों के ख़िलाफ़ बांधा नहीं जा सकता. किसान उस समझौते से कभी भी हटने के लिए स्वतंत्र होगा और उससे कोई पेनल्टी नहीं ली जाएगी.
'मंडी सिस्टम जैसा है, वैसा ही रहेगा'
केंद्र सरकार यह भी कह रही है कि 'मंडी सिस्टम जैसा है, वैसा ही रहेगा. अनाज मंडियों की व्यवस्था को ख़त्म नहीं किया जा रहा, बल्कि किसानों को सरकार विकल्प देकर, आज़ाद करने जा रही है. अब किसान अपनी फ़सल किसी को भी, कहीं भी बेच सकते हैं. इससे 'वन नेशन वन मार्केट' स्थापित होगा और बड़ी फ़ूड प्रोसेसिंग कंपनियों के साथ पार्टनरशिप करके किसान ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकेंगे.'
लेकिन किसान संगठन सवाल उठा रहे हैं कि 'उन्हें अपनी फ़सल देश में कहीं भी बेचने से पहले ही किसने रोका था?' उनके मुताबिक़, फ़सल का सही मूल्य और लगातार बढ़ती लागत - तब भी सबसे बड़ी परेशानी थी.
देश में कहीं भी फ़सल बेचने की बात
पी साईनाथ किसानों के इस तर्क से पूरी तरह सहमत हैं. वे कहते हैं, "किसान पहले से ही अपनी उपज को सरकारी बाज़ारों से बाहर या कहें कि 'देश में कहीं भी' बेच ही रहे हैं. ये पहले से है. इसमें नया क्या है? लेकिन किसानों का एक तबक़ा ऐसा भी है जो इन अधिसूचित थोक बाज़ारों और मंडियों से लाभान्वित हो रहा है. सरकार उन्हें नष्ट करने की कोशिश कर रही है."
लेकिन सरकार तो कह रही है कि ये विनियमित विपणन केंद्र और अधिसूचित थोक बाज़ार रहेंगे?
इसके जवाब में साईनाथ कहते हैं, "हाँ वो रहेंगे, लेकिन इनकी संख्या काफ़ी कम हो जाएगी. वर्तमान में जो लोग इनका उपयोग कर रहे हैं, वो ऐसा करना बंद कर देंगे. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में भी यही विचारधारा लागू की गई. वहाँ क्या हुआ, बताने की ज़रूरत नहीं. वही कृषि क्षेत्र में होगा. सरकार ने अपने आख़िरी बजट के दौरान ज़िला स्तर के अस्पतालों को भी निजी क्षेत्र को सौंपने के संकेत दिए थे. सरकारी स्कूलों को लेकर भी यही चल रहा है. अगर सरकारी स्कूलों की व्यवस्था को पूरी तरह नष्ट करने के बाद ग़रीबों से कहा जाए कि 'आपके बच्चों को अब देश के किसी भी स्कूल में पढ़ने की आज़ादी होगी.' तो ग़रीब कहाँ जायेंगे. और आज किसानों से जो कहा जा रहा है, वो ठीक वैसा ही है."
किसानों को ज़मीन छिनने का डर
मोदी सरकार इस बात पर बहुत ज़ोर दे रही है कि 'बिल में साफ़ लिखा है कि किसानों की ज़मीन की बिक्री, लीज़ और गिरवी रखना पूरी तरह प्रतिबंधित है. समझौता फ़सलों का होगा, ज़मीन का नहीं.'
साथ ही सरकार की ओर से यह भी कहा जा रहा है कि 'कॉरपोरेट के साथ मिलकर खेती करने से किसानों का नुक़सान नहीं होगा क्योंकि कई राज्यों में बड़े कॉर्पोरेशंस के साथ मिलकर किसान गन्ना, चाय और कॉफ़ी जैसी फ़सल उगा रहे हैं. बल्कि अब छोटे किसानों को भी ज़्यादा फ़ायदा मिलेगा और उन्हें तकनीक और पक्के मुनाफ़े का भरोसा मिलेगा.'
लेकिन पी साईनाथ सरकार की इस दलील से सहमत नहीं. वे कहते हैं, "कॉरपोरेट इस क्षेत्र में किसानों को मुनाफ़ा देने के लिए आ रहे हैं, तो भूल जाइए. वे अपने शेयरधारकों को लाभ देने के लिए इसमें आ रहे हैं. वे किसानों को उनकी फ़सल का सीमित दाम देकर, अपना मुनाफ़ा कमाएँगे. अगर वो किसानों को ज़्यादा भुगतान करने लगेंगे, तो बताएँ इस धंधे में उन्हें लाभ कैसे होगा? दिलचस्प बात तो ये है कि कॉरपोरेट को कृषि क्षेत्र में अपना पैसा लगाने की ज़रूरत भी नहीं होगी, बल्कि इसमें जनता का पैसा लगा होगा."
'ख़ुद को ग़ुलाम में बदलने का ठेका'
"रही बात कॉरपोरेट और किसानों के साथ मिलकर काम करने की और गन्ना-कॉफ़ी जैसे मॉडल की, तो हमें देखना होगा कि अनुबंध किस प्रकार का रहा. वर्तमान में प्रस्तावित अनुबंधों में, किसान के पास सौदेबाज़ी की ताक़त नहीं होगी, कोई शक्ति ही नहीं होगी. लिखित दस्तावेज़ को आवश्यक नहीं रखा गया है. सिविल अदालतों में जाया नहीं जा सकता. तो ये ऐसा होगा जैसे किसान ख़ुद को ग़ुलामों में बदलने का ठेका ले रहे हों."
साईनाथ कहते हैं, "बिहार में एपीएमसी एक्ट नहीं है. 2006 में इसे ख़त्म कर दिया गया था. वहाँ क्या हुआ? क्या बिहार में कॉरपोरेट स्थानीय किसानों की सेवा करते हैं? हुआ ये कि अंत में बिहार के किसानों को अपना मक्का हरियाणा के किसानों को बेचने पर मजबूर होना पड़ा. यानी किसी पार्टी को कोई लाभ नहीं हो रहा."
"अब महाराष्ट्र के किसानों का उदाहरण ले लीजिए. मुंबई में गाय के दूध की क़ीमत 48 रुपए लीटर है और भैंस के दूध की क़ीमत 60 रुपए प्रति लीटर. किसानों को इस 48 रुपए लीटर में से आख़िर क्या मिलता है? साल 2018-19 में, किसानों ने इससे नाराज़ होकर विशाल प्रदर्शन किए. उन्होंने सड़कों पर दूध बहाया. तो यह तय हुआ कि किसानों को 30 रुपए प्रति लीटर का भाव मिलेगा. लेकिन अप्रैल में महामारी शुरू होने के बाद, किसानों को सिर्फ़ 17 रुपए लीटर का रेट मिल रहा है. यानी किसानों के दूध (उत्पाद) की क़ीमत क़रीब 50 प्रतिशत तक गिर गई. आख़िर ये संभव कैसे हुआ? इस बारे में सोचना चाहिए."
भंडारण की ऊपरी सीमा समाप्त
सरकार की ओर से लाए गए कृषि बिलों का विरोध कर रहे किसानों की एक बड़ी चिंता ये भी है कि सरकार ने बड़े कॉरपोरेट्स पर से अब फ़सल भंडारण की ऊपरी सीमा समाप्त कर दी है.
किसान संगठन बिचौलियों और बड़े आढ़तियों की ओर से की जाने वाली जमाख़ोरी और उसके ज़रिए सीज़न में फ़सल का भाव बिगाड़ने की कोशिशों से पहले ही परेशान रहे हैं. लेकिन अब क्या बदलने वाला है?
इस सवाल के जवाब में पी साईनाथ कहते हैं, "अभी बताया जा रहा है कि किसानों को एक अच्छा बाज़ार मूल्य प्रदान करने के लिए ऐसा किया गया. लेकिन किसानों को तो हमेशा से ही फ़सल संग्रहित करने की आज़ादी थी. वो अपनी आर्थिक परिस्थितियों और संसाधन ना होने की वजह से ऐसा नहीं कर सके. अब ये आज़ादी बड़े कॉरपोरेट्स को भी दे दी गई है और ज़ोर इस बात पर दिया जा रहा है कि इससे किसानों को बढ़ा हुआ दाम मिलेगा. कैसे?"
"देखा यह गया है कि जब तक फ़सल किसान के हाथ में रहती है तो उसका दाम गिरता रहता है, और जैसे ही वो व्यापारी के हाथ में पहुँच जाती है, उसका दाम बढ़ने लगता है. ऐसे में कॉरपोरेट की जमाख़ोरी का मुनाफ़ा सरकार किसानों को कैसे देने वाली है? बल्कि इन बिलों के बाद व्यापारियों की संख्या भी तेज़ी से घटेगी और बाज़ार में कुछ कंपनियों का एकाधिपत्य होगा. उस स्थिति में, किसान को फ़सल की अधिक क़ीमत कैसे मिलेगी?"
साईनाथ कहते हैं कि 'जिन कंपनियों का जन्म ही मुनाफ़ा कमाने के लिए हुआ हो, वो कृषि क्षेत्र में किसानों की सेवा करने के लिए क्यों आना चाहेंगी?'
क्या कंपनियों को मौक़ा नहीं मिलना चाहिए?
लेकिन कुछ लोगों की राय है कि प्राइवेट कंपनियों के कृषि क्षेत्र में आने से कुछ सुविधाएँ बहुत तेज़ी से बेहतर हो सकती हैं. जैसे बड़े कोल्ड स्टोर बन सकते हैं. कुछ और संसाधन या तकनीकें इस क्षेत्र को मिल सकती हैं. तो क्यों ना इन्हें एक मौक़ा दिया जाए?
इस पर पी साईनाथ कहते हैं, 'सरकार ये काम क्यों नहीं करती. सरकार के पास तो ऐसा करने के लिए कोष भी है. निजी क्षेत्र के हाथों सौंपकर किसानों को सपने बेचने का क्या मतलब? सरकार भी तो बताए कि उसका क्या सहयोग है? भारतीय खाद्य निगम ने गोदामों का निर्माण बंद कर दिया है और फ़सल भंडारण का काम निजी क्षेत्र को सौंप दिया है. इसी वजह से, वो अब पंजाब में शराब और बियर के साथ अनाज का भंडारण कर रहे हैं. अगर गोदामों को निजी क्षेत्र को सौंप दिया जाएगा तो वो किराए के रूप में एक बड़ी क़ीमत माँगेंगे. भंडारण की सुविधा मुफ़्त नहीं होगी. यानी कोई सरकारी सहायता नहीं रहेगी.'
लेकिन इसका उपाय क्या है? किसान क्या कर सकते हैं? इसके जवाब में साईनाथ कहते हैं, "अगर किसान एकजुट होकर आपसी समन्वय स्थापित करें, तो वो हज़ारों किसान बाज़ार बना सकते हैं. किसान ख़ुद इन बाज़ारों को नियंत्रित कर सकते हैं. केरल में कोई अधिसूचित थोक बाज़ार नहीं हैं. उसके लिए कोई क़ानून भी नहीं हैं. लेकिन बाज़ार हैं. इसलिए मैं कह रहा हूँ कि ख़ुद किसानों के नियंत्रण वाले बाज़ार होने चाहिए. कुछ शहरों में भी अब इस तरह के प्रयास हो रहे हैं. आख़िर क्यों किसी किसान को अपनी फ़सल बेचने के लिए कॉरपोरेट पर निर्भर होना चाहिए?"
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